तर्ज–काना थारी मुरली ने
आवो आवो जी साँवरिया मारी भाव नगरी, कंचन काया नगरी ॥
पाँच तत्व रो देवळ बणियो, सोहनी सीकर मोत्याँ सूँ जड़ियो,
कंचन कळसाँ पे धोळी धजा लहरी ॥ कंचन॥1॥
दसों दरवाजा खिड़क्याँ ओका मोका,
कुदरतिया कळा केरा, गोख जरोखा,
अंतरजामी जाणो छो मारा मन री ॥ कंचन॥2॥
काडूँ करमा को कचरो, मंदिर बुहारूँ,
मीटी परमळ रा फूल पाट सवारूँ,
नेम रा दिवळा माही जोताँ जळणी ॥ कंचन॥3॥
धूप धूँवाड़ो करूँ ग्यान गुगळ रो,
भाव भगती केरो भोग निरमलो,
अरोगो मनुहाराँ मीटा गाळमा मिसरी ॥ कंचन॥4॥
घट में परगट गुराँ मोती उबारूँ,
आरत बाणी सूँ दाता आरती उतारूँ,
अमीरत झरणा की जारी भरी गगरी ॥ कंचन॥5॥
अणहद होदा पे नोपतिया गाजे,
जाजाँ जणकारा जीणी जालरियाँ बाजे,
घंटा घड़ियाला गेरी गेरी बजरी ॥ कंचन॥6॥
नेह नेणा रो हार चढाऊँ,
गुराँ पीराँ रा पगल्या मण्डाऊँ,
"भेरया" भगती कर ना जाणे लवल्या लगरी ॥ कंचन॥7॥