तर्ज (बार-बार तोहे क्या समजाऊँ पायल की झंकार)
बार बार हरिनाम सुमिरले, मत व्हे राम को चोर।
अन्त समय में तेरा होगा न कोई ओर॥टेर॥
चार दिन की चाँदणी, अन्त अंदेरी रात हे।
करले बावला मोकला, जोबनियो ढल जात हे॥
मान मान तो हे मै समझाऊ, मद छकिया मन मोर॥अन्त॥
मात पिता भ्राता सुत, मित्र मंडली ने हवो डरे।
जमी घरा धन मेलड़ा, रहसी ठोडा ठोड रे॥
उठ उठ झगपग जाग जा, जागत मत ना गोर॥अन्त॥
छूटी गोली नाल से, थूँ तकतो ही रह जायेगो।
प्राण पंखेरु उडग्यो, फिर हँसा हात न आयेगो॥
मन की मन मे रहेगी भेरव, पकड़ राम की डोर॥अन्त॥